AMU अल्पसंख्यक दर्जे पर नई बेंच फैसला करेगी:सुप्रीम कोर्ट ने 1967 का फैसला पलटा

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे पर फैसला अब 3 जजों की नई बेंच करेगी। सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की बेंच ने 4:3 के बहुमत से 1967 के अपने ही फैसले को पलट दिया। 1967 में सुप्रीम कोर्ट ने अजीज बाशा बनाम केंद्र सरकार के केस में कहा था कि केंद्रीय कानूनों के तहत बना संस्थान अल्पसंख्यक संस्थान का दावा नहीं कर सकता। कोर्ट ने कहा था कि AMU सेंट्रल यूनिवर्सिटी है। इसकी स्थापना न तो अल्पसंख्यकों ने की थी और न ही उसका संचालन किया था। 8 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोई संस्थान सिर्फ इसलिए अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं खो सकता, क्योंकि उसे केंद्रीय कानून के तहत बनाया गया है। अब नई बेंच यह फैसला करेगी कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं। CJI डीवाई चंद्रचूड़ ने 3 जजों की नई बेंच को निर्देश दिया कि इस बात की जांच करे कि इस यूनिवर्सिटी की स्थापना किसने की, इसके पीछे किसका दिमाग था। अगर यह सामने आता है कि इसके पीछे अल्पसंख्यक समुदाय था, तो आर्टिकल 30 के तहत AMU अल्पसंख्यक दर्जे का दावा कर सकती है।

ताजा विवाद 2005 में शुरू हुआ, जब AMU ने खुद को अल्पसंख्यक संस्थान माना और मेडिकल के PG कोर्सेस की 50% सीटें मुस्लिम छात्रों के लिए आरक्षित कर दीं। हिंदू छात्र इसके खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट गए। हाईकोर्ट ने AMU को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना। इसके खिलाफ AMU सुप्रीम कोर्ट गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में इस मामले को 7 जजों की संवैधानिक बेंच को ट्रांसफर कर दिया था।

4 जजों का बहुमत में फैसला, 3 पॉइंट

1. CJI डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा ने बहुमत में फैसला सुनाया। कहा- केंद्रीय कानून के तहत AMU को शामिल किया गया है, सिर्फ इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि इसकी स्थापना अल्पसंख्यकों ने नहीं की। ऐसी धारणा से आर्टिकल 30 का मकसद पूरा नहीं होगा।

2. इस संस्थान की स्थापना किसने की, यह तय करने के लिए कोर्ट को इसकी उत्पत्ति तक जाना होगा। यह पता करना होगा कि इस संस्थान के पीछे दिमाग किसका था। यह देखना होगा कि जमीन के लिए फंडिंग किसने की थी और क्या अल्पसंख्यक समुदाय ने मदद की थी।

3. यह जरूरी नहीं कि संस्थान की स्थापना सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय की मदद के लिए हुई। यह साबित करना भी जरूरी नहीं कि इसके प्रशासन में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों ने किया। अल्पसंख्यक संस्थान भी धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पर जोर दे सकते हैं। जरूरी नहीं कि अल्पसंख्यक ही प्रशासन चलाएं।

3 जजों का विरोध में फैसला 1. जस्टिस सूर्यकांत: अल्पसंख्यक आर्टिकल 30 के तहत किसी संस्थान की स्थापना कर सकते हैं, लेकिन सरकार और यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन (UGC) से इसे दर्जा मिलना जरूरी है।

आर्टिकल 30 के तहत अल्पसंख्यक का दर्जा पाने के लिए किसी संस्थान को अल्पसंख्यकों ने स्थापित किया और उसका संचालन किया। क्या AMU अल्पसंख्यक संस्थान है, यह कानून और तथ्यों से जुड़ा सवाल है। इस पर फैसला रेगुलर बेंच को करना चाहिए।

2. जस्टिस दीपांकर दत्ता: AMU अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। इस केस में 1981 और 2019 के फैसलों का जिक्र जरूरी नहीं है।

3. जस्टिस एससी शर्मा: अल्पसंख्यक बिना किसी बाहरी मदद के संस्थान का संचालन कर रहे हों। अल्पसंख्यक संस्थान को धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का विकल्प देना चाहिए। स्थापना अल्पसंख्यकों ने की, ये साबित करना चाहिए। प्रशासन का हर फैसला अल्पसंख्यकों के हाथ में होना चाहिए।

आर्टिकल 30 का मकसद यह है कि सभी को बराबरी का दर्जा मिले, साथ ही यह भी कि अल्पसंख्यकों को खास ट्रीटमेंट ना दिया जाए। यह मानना कि देश में अल्पसंख्यकों को शिक्षा के लिए सुरक्षित ठिकाने की जरूरत है, यह गलत है। अल्पसंख्यक भी मुख्य धारा का ही हिस्सा हैं और अब वे समान अवसरों में शामिल हो रहे हैं।

अब यूनिवर्सिटी की स्थापना से लेकर और उससे जुड़े विवादों को समझिए…

AMU की स्थापना का श्रेय सर सैयद अहमद खान को

1817 में दिल्ली के सादात (सैयद) खानदान में सर सैयद अहमद खान का जन्म हुआ। 24 साल की उम्र में सैयद अहमद मैनपुरी में उप-न्यायाधीश बन गए। इस समय ही उन्हें मुस्लिम समुदाय के लिए अलग से शिक्षण संस्थान की जरूरत महसूस हुई। उन्होंने मई 1872 में मुहम्मदन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज फंड कमेटी बनाया। कमेटी ने 1877 में मुहम्मदन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज की शुरुआत की। 1920 में ब्रिटिश सरकार की मदद से कमेटी ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक्ट बनाकर इस यूनिवर्सिटी की स्थापना की। पहले से बनी सभी कमेटियां भंग कर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के नाम से एक नई कमेटी बनी। इसी ही पूरी संपत्ति और अधिकार सौंपे गए।

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