आदिवासी सीटों पर जिस पार्टी को बहुमत उसे मिली प्रदेश की सत्ता

भोपाल

विधानसभा चुनाव में जिस भी दल ने पिछले तीन चुनाव में अपने 30 से ज्यादा विधायक बना लिए वह सत्ता के शिखर तक पहुंच जाता है। प्रदेश में अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित सीटों में से भाजपा ने दो बार 31 सीटें जीती और वह सत्ता पर काबिज हुई, लेकिन जैसे ही कांग्रेस ने तीस के आंकड़े को पार किया , तो भाजपा सत्ता से बेदखल हो गई। इस बार भी ऐसा ही माना जा रहा है कि आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित 47 सीटों में से जिसने तीस सीटें जीत ली वहीं दल सिकंदर बन सकता है।

मध्य प्रदेश में परिसीमन में बाद 2008 में विधानसभा के चुनाव हुए थे। जिसमें प्रदेश में 47 सीटे अनुसूचित जनजाति वर्ग के आरक्षित थी। इन सीटों में से इन सीटों में 63 फीसदी सीटें जीत ली वह सत्ता के शिखर पर पहुंचता है। हालांकि सत्ता तक पहुंचने के लिए 230 सीटों में से 116 विधायकों की जरुरत होती है, लेकिन पिछले तीन चुनाव के आंकड़ों से यह अनुमान लगाया जा रहा है कि जिस भी दल के अनुसूचित जनजाति वर्ग के 30 से ज्यादा विधायक बने वह सत्ता पर काबिज होगा।

इस तरह रहा इन सीटों का गणित
वर्ष 2008 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 47 सीटों में से 31 सीटें जीती थी, जबकि कांग्रेस सिर्फ 16 सीटों पर ही जीत सकी। सरकार भाजपा की बनी थी। इसके बाद वर्ष 2013 मे ंचुनाव में भी भाजपा ने 31 ही सीटें जीती थी, जबकि कांग्रेस 15 सीटों पर जीती थी, एक अन्य के खाते में जीत आई थी। तब भी भाजपा की ही सरकार प्रदेश में बनी थी। इसके बाद पिछले चुनाव में कांग्रेस ने एसटी के लिए आरक्षित सीटों में से 32 पर जीत दर्ज की और वह सत्ता में आ गई। जबकि भाजपा ने 14 सीटें जीती थी। बाद में झाबुआ में हुए विधानसभा के उपचुनाव में कांतिलाल भूरिया जीते, तो कांग्रेस के पास अनुसूचित जनजाति के विधायकों की संख्या बढ़कर 33 हो गई। जबकि भाजपा की 13 सीटें हो गई। कमलनाथ की 15 महीने की सरकार गिरने के बाद अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित तीन सीटों पर उपचुनाव हुए। भाजपा ने उपचुनाव में अनूपपुर के बाद नेपानगर और जोबट सीट जीती और उसकी संख्या बढ़कर 16 हो गई।

 

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