सऊदी-पाकिस्तान रक्षा समझौता और चीन की परमाणु दुविधा… शहबाज-MBS ने कैसे बैठे-बिठाए ड्रैगन को दी टेंशन

बीजिंग: सऊदी अरब और पाकिस्तान ने अहम रक्षा समझौता किया है। इस समझौते के तहत दोनों देशों में एक पर हमले को दोनों देशों पर हमला माना जाएगा। पाकिस्तान के साथ रक्षा समझौते को व्यापक सऊदी अरब के रणनीतिक कदम के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि वह अमेरिका से पारंपरिक सुरक्षा गारंटी के विकल्प की तलाश में है। हालांकि यह चीन के लिए समझौता दुविधा पैदा करता है। चीन के पाकिस्तान और सऊदी के साथ मजबूत संबंध हैं। इसमें रियाद के साथ उसके असैन्य परमाणु कार्यक्रम पर दीर्घकालिक सहयोग शामिल है।

साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक, वॉशिंगटन स्थित मध्य पूर्व संस्थान के एक गैर-निवासी वरिष्ठ फेलो जॉन कैलाब्रेसे कहते हैं, ‘सऊदी अरब ने बढ़ती बेचैनी में पाकिस्तान से समझौता किया है। यह चीन को अपने परमाणु विकास को आगे बढ़ाने का मौका दे सकता है। असैन्य परमाणु परियोजनाओं और यूरेनियम अन्वेषण पर सऊदी अरब के साथ चीन का ऐतिहासिक सहयोग गहन जुड़ाव का एक संभावित मार्ग प्रदान करता है।’

सऊदी-चीन के संबंध

साल 2020 में सऊदी अरब ने उस रिपोर्ट का खंडन किया, जिसमें कहा गया था कि उसकी चीन में यूरेनियम के उत्पादन की एक परियोजना में शामिल है। हालांकि रियाद ने यूरेनियम अन्वेषण के कुछ क्षेत्रों में चीन के साथ काम करने के लिए सहमत होने की बात कही। 2023 में सामने आया कि सऊदी अरब परमाणु ऊर्जा संयंत्र बनाने के लिए चीन की बोली पर विचार कर रहा था।

चीन और सऊदी ने दोनों पक्षों ने यूरेनियम और थोरियम संसाधनों पर व्यापक सहयोग पर एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। साथ ही साल 2017 में समुद्री जल से यूरेनियम निकालने के लिए संयुक्त परियोजनाएं भी स्थापित की हैं। इस वर्ष अप्रैल में दोनों देशों ने परमाणु ऊर्जा सुरक्षा पर एक और समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए।

चीन की अरब जगत पर नजर

हार्वर्ड केनेडी स्कूल में परमाणु प्रबंधन परियोजना की विजिटिंग फेलो राबिया अख्तर का कहना है कि बीजिंग के लिए सऊदी अरब से परमाणु पर आगे बढ़ने में मुश्किल होगा। चीन को परमाणु अप्रसारक के रूप में चिह्नित किए जाने से कोई खास लाभ नहीं है। उसे प्रतिबंधों को लागू किए बिना प्रभाव बढ़ाने वाला एक विश्वसनीय नागरिक भागीदार बनकर अधिक लाभ होगा।

पश्चिम एशिया में अपने प्रभाव का विस्तार करने की बीजिंग की महत्वाकांक्षा स्पष्ट है। हालांकि उसने शांति मध्यस्थ की भूमिका निभाकर खुद को वॉशिंगटन से अलग दिखाने की कोशिश की है। इसी साल मार्च म चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने पश्चिमी प्रतिबंधों की निंदा करते हुए परमाणु अप्रसार के प्रति चीन की प्रतिबद्धता पर जोर दिया था।

क्या है चीन की कशमकश

शंघाई इंटरनेशनल स्टडीज यूनिवर्सिटी के मध्य पूर्व विशेषज्ञ वेन शाओबियाओ ने कहा, ‘पश्चिम एशिया के सुरक्षा परिदृश्य में प्रवेश करने के लिए चीन का दृष्टिकोण खुद को तनाव के स्रोत के बजाय स्थिरता लाने वाले के रूप में प्रस्तुत करना है। मेरा मानना है कि बीजिंग क्षेत्रीय परमाणु हथियारों की दौड़ को तेज करने में कोई भूमिका नहीं निभाएगा।’

चीन और पाकिस्तान के घनिष्ठ सैन्य संबंधों ने अटकलों को हवा दी है कि यह समझौता बीजिंग और रियाद के लिए परमाणु हथियारों पर सहयोग का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। वॉशिंगटन स्थित कंसल्टेंसी रिहला रिसर्च एंड एडवाइजरी के निदेशक जेसी मार्क्स कहते हैं, ‘ऐसा होने की संभावना नहीं है। बीजिंग-पाकिस्तान तंत्र सऊदी परमाणुकरण की आधारशिला बन जाता है तो बीजिंग को भारत और ईरान सहित अपने ही एससीओ सदस्यों के विरोध का सामना करना पड़ सकता है।’

मार्क्स का कहना है कि इससे चीन की व्यापक अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया और आलोचना हो सकती है। इससे बीजिंग की वैश्विक सुरक्षा पहल और उसकी व्यापक वैश्विक शासन महत्वाकांक्षाओं के इर्द-गिर्द नेतृत्व की कोशिश कमजोर होगी। यह रियाद और तेहरान के बीच शांति मध्यस्थ के रूप में चीन की भूमिका को खतरे में डालेगी। बीजिंग को सऊदी के साथ अपने परमाणु सहयोग पर रेड लाइन खींचनी चाहिए। सऊदी-ईरान परमाणु हथियारों की होड़ चीन नहीं चाहेगा।

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