ऊपर – ऊपर घूम जाते हैं नेता, यहां पहाड़ों पर कौन आए, जानिए सरदार सरोवर बांध पर बसे लोगों की कहानी
भोपाल। सतपुड़ा की वादियों के बीच सरदार सरोवर बांध से थमी नर्मदा के जल का विस्तार 100 किलोमीटर से भी अधिक लंबाई में फैला है। अथाह जलराशि ने तलहटियों से लेकर आधे पर्वतों को आगोश में ले लिया है, पानी के ऊपर नजर आती हैं पहाड़ों की चोटियां।
जलसीमा पर पहरेदार से खड़े पहाड़ों पर यहां-वहां चार-पांच घरों की फलिया या गांव नजर आते हैं। यह वे बदनसीब गांव हैं, जिनके सामने पानी है तो पीछे से इनका रास्ता पहाड़ों ने रोक रखा है। जल विस्तार का तोड़ तो इन आदिवासियों ने जलपरिवहन अपनाकर कुछ हद तक ढूंढ लिया है लेकिन बिजली,पानी और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं का सवाल इनके सामने मुंह बाए खड़ा है।
बड़वानी से गुजरात की सीमा तक 80 किमी के दायरे में पहाड़ों पर बिखरे यह अधिकतर गांव खरगौन और रतलाम लोकसभा क्षेत्रों में आते हैं लेकिन इन चुनावों के शोर में इन हजारों आदिवासियों के विस्थापन, मूलभूत सुविधाओं का जिक्र कहीं सुनाई नहीं देता है। दिन में मोटरबोट की आवाजें यहां ठहरे पानी में कुछ हलचल पैदा भी करती हैं लेकिन रात को घुप अंधेरे में पानी से लेकर पहाड़ों पर पसरा सन्नाटा भी चीत्कार जैसा लगता है।
यहां एक दर्जन से अधिक गांव ऐसे हैं जहां 21वीं सदी के 24 साल बीतने पर भी न तो मोबाइल नेटवर्क है न बिजली ही पहुंची है। खारिया बादल, शगट, झंडाना, अंजनवाड़ा जैसे इन गांवों से पानी दिखाई तो खूब पड़ता है लेकिन एक-एक बूंद इतना कीमती है कि एक गगरी को नर्मदा के जलस्तर से घर तक ले जाने के लिए आधे से एक किलोमीटर की सीधी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। बड़वानी कस्बे से करीब 70 किलोमीटर दूर एक छोटा सा आदिवासी गांव ककराना इन एक दर्जन से अधिक गांवों के लिए बंदरगाह का काम करता है। यहां हथनी नदी नर्मदा में आकर मिलती है। शुक्रवार को यहां बाजार लगी है।
अलग-अलग गांव की मोटरबोट की बेंच और छतों पर इंच-इंच में बैठकर पहाड़ी गांवों के सैकड़ों निवासी यहां बाजार करने आए हुए हैं। मोटर बोट क्या हैं, गुजरात के बंदरगाहों से रिटायर हुई जंग खाई नावें हैं। विरासत में मिले चांदी के जेवरात बेच कर लाई गई साझी संपत्ति हैं तो कहीं पूरे गांव के लिए परिवहन का एकमात्र साधन।
सरकार बैकवाटर में क्रूज चलाने का प्रस्ताव तो बना चुकी है लेकिन वर्तमान में हजारों आदिवासियों को ले जाने वाली यह बिना किसी सुरक्षा उपायों , बिना किसी मानक के मां नर्मदा के भरोसे ही चल रही हैं। एक निजी संस्था बोट एंबुलेंस चलाती है इसके अलावा किसी तरह की सुविधा गांवों तक पहुंचती नजर नहीं आती।
युवा जैपाल बताते हैं मैं शगट गांव में रहता हूं। हर बार बाजार के दिन और जब भी काम होता है तब मैं यहां आता हूं। पहाड़ से उतरने के बाद नाव का इंतजार करना पड़ता है। नाव के आने का कोई टाइम नहीं है न ही मोबाइल है, घंटों भी बैठना पड़ जाता है। यदि डीह के बाजार चले जाओ तो लौटते समय मोटरबोट मिलेगी या नहीं पता नहीं, कई बार यही किनारे पर सोना पड़ता है रात को।
खाते क्या हो? दर्द भरी मुस्कुराहट के साथ बताते हैं, ककराना से पारले जी लाते हैं और यही पानी पीकर सो जाते हैं और क्या करेंगे? पानी भरते हैं, मछली मारते हैं और क्या? बाजार करने के बाद घर जाने के लिए बैठे बुजुर्ग नीथरा बोले चुनाव है तो क्या हुआ, नेता ऊपर-ऊपर आते हैं यहां पहाड़ों पर टपरा में कौन आए? क्या चाहते हो सरकार से, इस पर बोले, पानी दे देवे, सड़क बिजली दे देवे और क्या चाहेंगे।
युवा क्या करते हैं पूछने पर बताया कि नीचे जाकर पानी भरते हैं, मछली मारते हैं और क्या करेंगे? नाव पर मतदान दल, नाव पर मतदाता समस्याओं के अंबार के बीच यहां भी चुनाव होंगे। ककराना में एनडीआरएफ के जवान मोटरबोट लेकर तैनात हैं।
सुभाष बताते है, इन गांवों के मतदान केंद्र भी इसी इलाके में बनाए जाते हैं, मतदान दल भी नाव से ही जाएंगे और इनमें से बहुत से गांवों के लोग अपनी-अपनी नावों से ही वोट डालने जाएंगे इस उम्मीद के साथ कि आने वाली सरकारें इनके हालात बदलने के लिए जरूर कोई न कोई कदम उठाएंगी।