7 किसानों से शुरू हुई संरक्षित खेती से आज 105 किसान 3.28 लाख वर्गमीटर नेटशेड-पॉली हॉउस में कर रहे संरक्षित खेती

  • सिरलाय बायो लैब के एक करोड़ केला टिश्यू की होती है रोपाई
  • जिले सहित देश के 12 प्रदेशों में पहुंचते है नर्सरी के विशेष पौधे

खरगोन
संरक्षित खेती एक नवीनतम तकनीक है। जिसके माध्यम से फसलों की मांग के अनुसार सूक्ष्म वातावरण को नियन्त्रित करते हुए मूल्यवान सब्जियों की खेती का प्राकृतिक प्रकोपों एवं अन्य समस्याओं से बचाव किया जाता है। इसमें कम से कम क्षेत्रफल में अधिक से अधिक गुणवत्ता युक्त उत्पादन प्राप्त किया जाता है। संरक्षित खेती की दिशा में किसानों का रुझान अब बहुत तेज गति से बढ़ रहा है। इसका एक कारण बढ़ते तापमान और वायरस से बचाव कर कृषि में उत्पादन बढ़ाते हुए मुनाफा कमाना है। इसके लिए मप्र शासन ने संरक्षित खेती को प्रोत्साहित करने के लिए वर्ष 2009-10 में शेडनेट अपर पॉली हॉउस के साथ प्रारम्भ किया था। इसमें मुख्य रूप से सब्जियों से लेकर पौध तैयार करने में रुचि दिखा रहे है। संरक्षित खेती को प्रोत्साहन देने के लिए राज्य के बाहर प्रशिक्षण कराया जाता है। अभी 16 सितंबर को जिले के 30 किसान एक ऐसा ही प्रशिक्षण पुणे के तलेगांव से लेकर आये है। उद्यानिकी विभाग के एसडीओ पीएस बड़ोले ने बताया कि प्रशिक्षण में शेडनेट व पॉली हॉउस के प्रबंधन और उसमें उपचार पर केंद्रित था। जिले में वर्ष 2009-10 में 6 से 7 हजार वर्गमीटर से प्रारम्भ हुआ था। आज जिले के किसानों में इसके प्रति ज्यादा जागरूकता आयी है।    

कपूरचंद ने शासकीय सहयोग से मिले लाभ का अवसर उठाया निजी तौर पर आगे बढ़ाई संरक्षित खेती    
महेश्वर के नांदरा गांव के कपूरचंद को उद्यानिकी विभाग द्वारा 2012-13 में 1 एकड़ में पॉली हॉउस प्रदान किया गया। करीब 10 वर्षाे तक पॉली हॉउस के अच्छे प्रबंधन के बाद आज भी वे पॉली हॉउस का उपयोग कर मुनाफा ले रहे है। हालांकि अब उन्होंने इस कृषि को आगे बढ़ा कर 3.50 एकड़ में खेती कर रहे है। अभी वे टमाटर, मिर्च और कई प्रकार की सब्जियां इस नवीन तरीके से कर रहें है।  

निजी संसाधनों से प्रदेश में पहचान बनाई      
बड़वाह के सिरलाय गांव के किसान लक्ष्मण काग ने अपने प्रयासों से नर्सरी से टिशू कल्चर बायो लैब तक का सफर तय किया है। वे हर साल लगभग एक करोड़ केले के पौधे जिले व प्रदेश में पहचान बनाई है। टिश्यू लेब से 8 माह बाद सामान्य माहौल में लाकर रोपाई को भेज देते है। ये 9-10 माह में फल देने लगते हैं। जबकि सामान्य पौधे 12-14 महीने का समय लेते हैं। तिरुपति नर्सरी डायरेक्टर लक्ष्मण काग बताते हैं लगभग 41 एकड़ में फैली यह मध्य भारत की सबसे बड़ी नर्सरी है। 12 राज्यों में वानिकी, औषधीय, सजावटी, फलदार पौधों की 200 वैरायटी सहित केला व अन्य टिश्यू कल्चर विकसित कर भेज रहे हैं। स्थानीय स्तर पर किसानों को पौध संरक्षण व उत्पादन प्रशिक्षण भी मिल रहा है।  

ऐसी है टिश्यू की लैब प्रक्रिया        
बॉयो लैब एक्सपर्ट विक्रम सिंह बताते हैं कि कंद से फूटे केला टिश्यू के टुकड़े को पोषक तत्व व प्लांट हार्माेन की बॉटल या जैली में रखते है। हार्माेन पौधे के ऊतकों में कोशिकाओं को तेजी से विभाजित कर कई कोशिकाओं का निर्माण कर देते है। एक बार में 500 से 1000 पौधे तैयार किए जाते हैं। यहां 1000 बॉटल या जैली में कई पौधे तैयार होते है। एक माह तक 27 डिग्री तापमान मेंटेन करना होता है। आगे उनमें 35 डिग्री व 40 डिग्री की प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर नेटशेड हाउस में शिफ्ट कर देते हैं। 4 चरण में प्रक्रिया में 8 माह लग जाते हैं।  

105 किसानों को नेटशेड व पाली हाउस पर मिला अनुदान 
उद्यानिकी उपसंचालक केके गिरवाल के मुताबिक जिले में अब तक विभिन्न योजनाओं में 105 किसान हितग्राहियों को अनुदान उपलब्ध कराया गया है। एकीकृत बागवानी मिशन, राज्य पोषित योजना में 328908 वर्ग मीटर एरिया में नेटशेड व पाली हाउस के माध्यम से किसान खेती कर रहे हैं। इसकी शुरुआत 7 किसानों से 7 हजार वर्गमीटर में हुई थी। यहां तैयार पौध स्वस्थ होने से उद्यानिकी उत्पादन भी तेजी से बढ़ रहा है।

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